भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँठ में बन्द आखर / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन का अपना फ़लसफ़ा हुआ करता है
और मन की चमड़ी का अपना
चमड़ी चूँकि बाहर की हवा में साँस लेती थी
सो हमारी दोस्ती उसी से थी

मन के इसी फ़लसफ़े में
एक तख़्ती के लिए भी जगह थी
जिस पर लाख साफ़ करने पर भी
शब्द मिटते नहीं थे

सफ़ाई से महज़ धूल ही साफ़ होती है
या फिर मन भी ?
कुछ साफ़ करने से मन का तापमान भी घटता-बढ़ता है क्या

निश्चित काम को दोहराते-फैलाते
पुरानी गठरी में रोज़ एक नई गाँठ लगती जाती है
पुरानी गाँठ के ऊपर एक नई आँट

शब्दों पर मोती टाँकना
का जुनून हुआ करता था तब
और होड़ भी सबसे क़रीबी दोस्त से होती

तब कोई गाँठ बँधती भी थी तो
दसों उँगलियों के संकोच बिना

मास्टर की मार का असर जितना घमासान होता था
उतना आज पूरा का पूरा आसमान टूटने पर भी नहीं होता

रात के भोजन से भी ज्यादा ज़रूरी था
तख़्ती के पुराने सूखे हुए हर्फ़ों को साफ़ करना

मुल्तानी मिटटी ख़त्म हो गई है
तेज़ दौड़ के साथ पड़ोसन काकी के घर से ला
कुछ देर भीगो कर उससे तख़्ती को साफ़ करना
सभी कामों का सरताज होता

कई गाँठे तो आज भी मन में कुण्डली जमाए बैठी हैं
तख़्ती पर आड़े लेटे आखर आज भी लेटे हैं मुस्तैद

आज भी मन की वह गाँठ कसी-कसाई
है ज्यों की त्यों
और तख़्ती पर उकरे शब्द आज भी
गीले हैं