भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँवों की गलियों से अब तो / रेनू द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँवों की गलियों से अब तो,
ख़त्म-हुए उल्लास!
मुत्यु-सेज पर लेटी है ज्यों,
जीवन की हर आस!

बूढ़ा बरगद नित रोता है,
किसको दूँ अब छाँव!
चले गए सब शहर कमाने,
छोड़-छोड़ के गाँव!

भौतिकता की चकाचौंध से,
सुस्त हुए अहसास!
मृत्यु सेज---

अपनों की कटु वाणी ने ही,
दिया कलेजा चीर!
पीड़ा के बादल से बरसे,
नित आँखों से नीर!

व्यंग वाण से अंतस छलनी,
चोटिल सब विश्वास!
मृत्यु सेज---

खारा सागरआँखों में है,
और ह्रदय तूफान!
रिश्ते नाते जोड़ रहे अब,
मतलब से इन्सान!

त्योंहारों के लड्डू से भी,
गायब हुई मिठास!
मृत्यु सेज---

यहाँ भला किसने देखा कल,
यह तो गहरा राज!
कल की चाहत मन में लेकर,
क्यों खोऊँ मैं आज!

यही सोच मन बहलाऊँ जब,
होती कभी उदास,
मृत्यु सेज---