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गाँव अपना / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
खिलखिलाता
सिर उठाए
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया ।
अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में
अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।
दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।