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गाँव और शहर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
मेरा गाँव मुझे अब दे दो, चाहे जैसे हो
शहर तुम्हारा है, तुम ले लो, मैं क्यों रोकूंगा
लेकिन जब तुम हद पर आए, तो मैं टोकूंगा
नहीं जानता था मैं सचमुच तुम तो ऐसे हो ।
मैं तो श्रम का, शांति-शील का पुतला ही भर था
मुझे शहर में ले आये ललचा कर, लूटा फिर
कोई क्यों कहता औरों को, तुम ही हो काफिर
जल-पत्रों से लुभा गया मैं, भोले शंकर था ।
उधर गाँव में घुस कर तुम तो सब ही लूट गये
खेती लूटी, नदियां लूटीं, जंगल लूटे और
खड़े हो गये महल खेत में, मुँह के छीने कौर
पुश्तैनी रिश्तों के सारे धागे टूट गये ।
मेरा गाँव शिवाला था वह, गिरि-सा शहर तुम्हारा
मेरा गाँव मुझे अब दे दो; हम सबका ध्रुवतारा।