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गाँव का एक दिन / शहनाज़ इमरानी
Kavita Kosh से
परिन्दे जाग गए है
एक दूसरे का अभिवादन
कर रहे हैं शायद
दो चिड़ियाँ आपस में
प्यार करती है
या झगड़ती हैं
चार खम्बे और एक छप्पर
कहने को है एक घर
आँगन के चूल्हे से
उठता कण्डों का धुआँ है
एक बछड़ा उछलता है
एक चितकबरी गाय रँभाती है
एक कुत्ता आँगन में सोता है
एक गहरा कुआँ
जिस से लौटती थीं गूँजती आवाज़ें
समय ने पाट दिया है
कुछ पेड़ों के पत्ते पीले हुए है
सूनी डालियों को छोड़ कर
हवा के रुख़ पर तैरते है
जैसे बिना इरादों के आदमी
कच्चे रास्तों से गुज़र कर
गाँव की छरहरी पगडण्डी
चौड़ी सड़क से जा मिली है
यहाँ सब कुछ वैसा सुन्दर नहीं है
जो अक्सर टी० वी० के चैनलों पर
दिखाया जाता है
मुख्तलिफ़ दुनिया है गाँव की
अभावों से भरी ज़िन्दगी की साँसे
किसान का पसीना
और ग़रीबी की मार ।