गाँव का रहस्य / बाल गंगाधर 'बागी'
जहाँ संघर्ष होता ज़िन्दगी और मौसम से
सूनी पगडंडियां (कच्ची सड़कें) खेतों के बीच जाती हुई
घास फूस के छप्पर ठिठुरते जीवन में
फटे हालात की उम्मीद टिमटिमाती हुई
कुपोषित देह से कुदाल उठाकर जब भी
बराबर सीने के जब भी वे तानें हैं
पीड़ा की नदी पसीने के साथ बह निकली
लेकिन पेट लिये हार न हटके माने हैं
पीली आंखे सूखे होठों पे हंसी कैसी हो
फटे चीथड़े बाल बिखरे आंतें सिकुड़ी हों
भूखे नंगे बीमार बच्चे व औरत के ऊपर
कोई बताये ऐसे बागों में बहार कैसे हो
दर्द और करवटों के बीच में नींदे उनकी
स्वप्न के दरवाजे पे दीपक सी जलती है
अपने खून से जो खुद को जरा रखी हो
ऐसे उम्मीद की समा भी नहीं बुझती है
ठण्डी हवाएं तीरों की तरह चुभ चुभ कर
नंगी शरीर को यह बात बताने आयी
हम तो छोड़ेंगे मौसम के बीत जाने पर
क्या कटेगी सजा तुमने जो मनु से पायी
उन्हें दिशा नहीं मालूम पंछियों की तरह
किस तरह उनकी, कौन जानें उड़ाने हांेगी?
जिन्हें मालूम है मगर शिक्षा नहीं
उनसे किस तरह ऐसी की बगावत होगी?
दिशा विहीन राहें सब खत्म होंगी
वहीं फावड़े कुदाल खुरपी हसिया से
बिना शिक्षा संघर्ष क्या कर पायेंगे?
धार की उलटी बहती तीव्र सरिता में
चिलचिलाती धूप पसीने का खारापन
शरीर में कांटे की तरह चुभ चुभकर
धूल धुसरित बदन पर है मैल जैसा
बरसता लाचारी का मौसम आंख भरकर
कुपोषित जीवन है प्रमाण धंसे पेटों का
घुटनों की घुटन उभरती पसलियों का
ऊपर से बोझ जीवन की जिम्मेदारियों का
उलझते उलझन भी फूटती गगरियों सा
ये मुशाफिर एक पग ठहर तो जा
देख जंगल घना और सुहाना है
कई साजिशंे तेरे ख़िलाफ इनमें हैं
भूल के तुम्हें यहाँ न भटक जाना है
वे हारते नहीं हालात हरा देते हैं
वे रोते नहीं बादल ही बरस जाते हैं
वे लड़ना नहीं छोड़े हैं उम्मीदों से
सिर्फ साजिश के तूफान उमड़ जाते हैं