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गाँव का शिकारा / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनजानी भूल की तरह
अँकुराया दूध-जला तारा
लौट चला दिन
हारा-हारा
आँगन की धूल की तरह ।
खुली-खुली लहर वर्तुली
बुढ़ियाई, थक गई
बरगद की डाल चुलबुली
ताल में उझक गई
खोंस लिया चम्पई सितारा
जूड़े में फूल की तरह ।
शरमीली साँवरी निशा
पानी में घुल गई
गर्वीली सोनई दिशा
काजल से छुल गई
डूब गया गाँव का शिकारा
प्रतिबिम्बित कूल की तरह ।