गाँव की तलाश / सुभाष राय
जब कभी अकेला होता हूँ
मुझे घेरकर बैठ जाता है गाँव
बतियाता हुआ, मेरा मज़ाक उड़ाता हुआ
भीतर उभरने लगते हैं कई दृश्य
रमबिरछा पढ़ता है कक्षा चार में
लट्टू बनाता है, तिपहिया गढ़ता है
कन्धे पर बँसुला लटकाए उसके पिता आते हैं
जब भी ज़रूरत पड़ती है इँजीनियर की
चाक नाचता है रामरतन की उँगलियों पर
मिट्टी कभी दीये और घड़े में
तो कभी गणेश और शिव में बदल जाती है
कबीर ने उन्हीं के किसी पुरखे को
चाक को उँगली पर घुमाते देखा होगा
माटी और कुम्हार का रिश्ता
उन्होंने भले ही बदल दिया हो
पर रामरतन के हाथ के जादू के बिना
गाँव एक क़दम चल नहीं पाता है
सहदेव के कन्धे बहुत मजबूत हैं
डोली बिना उनके सहारे आ नहीं पाती
चमारिनें बहुत सुन्दर लगती हैं श्रम के गीत गाते हुए
उनके हाथ लगे बिना न धान आता है,न गेहूँ, न गुड़
वही सबसे पहले स्पर्श करती हैं अन्न को
खँती नीलाम होती है तो सभी साथ-साथ उतरते हैं
जिसमें जितना ज़ोर होता है, मछलियाँ ले जाता है
मेरा वह गाँव खो गया है कहीं समय के कुहासे में
पोखरे, ताल के ऊपर खड़ी हैं ऊँची इमारतें
पानी ठहरता नहीं, उड़ जाता है वाष्प बनकर
खेत के गीत नहीं सुनाई पड़ते अब
बच्चे पैदा होने पर सोहर नहीं गातीं महिलाएँ
नौटँकी नहीं होती, रहीम चाचा का आल्हा भी नहीं
बैल बिक गए, गायें प्लास्टिक खाकर मर रहीं
बच्चे खेलते नहीं, न ही शैतानी करते हैं
वे बोलने से पहले पढ़ना सीखने लगे हैं
शहर बढ़ आया है गाँव तक
अपने छद्म, फ़रेब के साथ
मैं परेशान हूँ उस मिट्टी के लिए
जिससे मैं बना हूँ, जिससे मैं ज़िन्दा हूँ