गाँव की लड़कियाँ / संजय कुमार शांडिल्य

मैं कहूँ कि गाँव की लङकियों के सिर पर
चाँद के पास कम केश होते हैं
आप पूछोगे आपको कैसे पता है

गगरे में दाल का पानी ढोती हैं गाँव की लङकियाँ
सिर्फ उस दिन को छोङकर जब घर में मेहमान आते हैं लगभग बारहों महीने
विवाह तय होने के हफ्ते दो हफ्ते पहले तक

दबंगों की बेहिस छेड़ को ज़माने से ज़्यादा अपने भाइयों से छुपाती हैं गाँव की लङकियाँ
आप पूछोगे आपको कैसे पता है

गाँव की लङकियाँ अपने सपनों में कोई राजकुमार नहीं देखती हैं
वह समझती हैं जीवन और कहानियों का पानी और आग जितना फ़र्क

मैं कहूँ कि गाँव की लङकियाँ किसी से भी ब्याह कर एक दुनिया बसा लेती हैं
अमुमन वैसे कि ठीक-ठीक वही हो उनके ख़्वाबों की दुनिया
आप पूछोगे आपको कैसे पता है

गाँव की लङकियँ खूब रंगीन रिबन से अपनी चोटी बनाती हैं
और उन्हें मेले से चूड़ी और रिबन के अलावा कुछ और नहीं ख़रीदना होता है

गाँव की लङकियाँ गाँव की लङकियाँ होती हैं
खूब गहरी
हवा में भी रौशनी में भी मिट्टी के बाहर भी
उनकी जड़ें हैं उनके वजूद से झाँकती हुई

इन घनी लङकियों को बारिश और धूप से आप नहीं डरा सकते हैं
आप पूछोगे कि आप को कैसे पता है?

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