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गाँव बिक रहा है-5 / अमरजीत कौंके

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मैं अब सिर्फ़ अपनी कविता में
गाँव को सम्भाल सकूँगा
(एक कवि सिर्फ़ इतना ही कर सकता है)

मैं अपनी कविता पढ़ते हुए
गाँव की मिट्टी की महक महसूस करूँगा
गाँव में अपने बसते
और उजड़े हुए घर के बीच
सदैव
किसी त्रिशंकु ऋषि की तरह लटकता
चुपचाप दर्द सहूँगा

मैं बार बार अपने बच्चे को
गाँव जा कर रहने के लिये कहूँगा
जो शायद वह कभी भी नहीं मानेगा

मैं अपनी कविता में
अपने गाँव का नायक ‘मोदन’ सृजता हूँ
‘पीर रोडू’ की समाधि
‘बाबा’ के घर में
बीस बरस पहले खाया रोट
‘डाक्टर तेजा सिंह’ की सुई
डेरे का महंत ‘बाबा प्रताप सिंह’
जो पिछले बरस गुज़र गया
(जिस का डेरा भी अब गिरने वाला है)
गाँव की मोहतबर औरतें
जै कौर, चन्द कौर, बेबे भानी, माई बुद्धां
गाँव के गिर रहे दरवाज़े की तरह
सब जो धीरे-धीरे
वक़्त की आगोश में समा गए
मैं इन सब को
अपनी कविता में सम्भाल लेना चाहता हूँ

सम्भाल लेना चाहता हूँ
गाँव की वह कितनी सारी लड़कियाँ
जो बचपन में मुझे
तीजों में ले जातीं
गोद में बिठा कर झूला झूलतीं
मुझसे शर्मा कर वे गीत गातीं
जिनके मुझे तब अर्थ भी नहीं थे पता

मैं अपनी कविता में
अपनी दादी के कपड़े सिलने के लिए
रखी गई मशीन की जगह ढूँढता हूँ
अपने दादा के खाना खाने के लिए
स्टूल रखता हूँ
जिसके पास बैठे हाथ धोते हुए वह
किसी बादशाह से कम नहीं थे लगते

मैं अपनी कविता में
गाँव के कुएँ की गिर रही
मुण्डेर के बारे में सोचता हूँ
जिस पर मेरे चाचा ने
कितनी शान से
अपना नाम लिखवाया था

मैं अपनी कविता में
अपने गाँव
अपने गाँव के घर की
प्रत्येक वस्तु को
किसी निपुण फोटोग्राफर की भाँति
स्थिर करता हूँ
सिर्फ मैं ही जानता हूँ
कि यह काम करते हुए मैं
किस तरह, कैसे और कितनी बार
अपने भीतर ही भीतर मरता हूँ

चन्द सिक्कों के बदले
मेरे पूवर्जों का घर
मेरा गाँव
बिक रहा है
मैं अपने गाँव को
अपनी कविता में
स्थिर करना चाहता हूँ

(एक कवि सिर्फ इतना 'ही' कर सकता है ।)

(एक कवि इतना 'तो' कर ही सकता है ।)

मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा