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गाँव में रहना कोई चाहे नहीं / डी .एम. मिश्र

गाँव में रहना कोई चाहे नहीं
धूप में जलना कोई चाहे नहीं

संगमरमर पर बिछा क़ालीन हो
धूल में चलना कोई चाहे नहीं

जंगली पौधे भी गमले ढूँढते
बाग़ में खिलना कोई चाहे नहीं

सेठ की जाकर करेंगे चाकरी
खेत में खटना कोई चाहे नहीं

गाँव में रहते नकारा लोग हैं
व्यंग्य यह सुनना कोई चाहे नहीं

घर के बच्चे भी लगें मेहमान से
चार दिन रुकना कोई चाहे नहीं

गाँव है तो पेट को रोटी मिले
गाँव को वरना कोई चाहे नहीं