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गाँव / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
घर लौटा, तो सबने पूछा, शहर गये क्या लाए
मैंने कहा, वहाँ पर क्या था, उठा जिसे मैं लाता
अरे, वहाँ तो जा कर ही मैं अब तक हूँ पछताता
कभी शहर क्या भाया मुझको, जैसा गाँव ये भाए।
कोई नहीं पूछनेवाला वहाँ तुम्हें है, भैया
क्या खाते हो, क्या पीते हो, कैसे रहते-जीते
ऊपर से ही भरे-भरे सब, भीतर रीते-रीते
बाॅलडान्स से अच्छा है यह गाँव का ता-ता-थैया ।
दोपहिये पर तिनपहियों का क्या जुगाड़, क्या खेला
दौड़ रही है मृत्यु उठाए सबकी यहाँ सवारी
झोला भर रुपया है, तो फिर झोला भर तरकारी
गाँव लौटकर अब समझा है, अच्छा यही अधेला ।
खुली धूप है, खुली हवा है, जहर नहीं है, पानी
अपना गाँव तो अब भी भैया, दादा, दादी, नानी ।