गांग नहाबोॅ / मनीष कुमार गुंज
हिन्नें जऱलोॅ, हुन्ने मरलोॅ
कचरा से सगरै छै भरलोॅ
जरूरत जेकरा उ फरियाबोॅ
बे-मतलव के नय गरियाबोॅ
छै कीधोर ते हर-हर बोली
आँख मुनी के गांग नहाबोॅ।
सब चाहै छै निर्मल-चंगा
कपसै बूंद-बूंद जल गंगा
कूहरी-कूहरी जिनगी खेपोॅ
साबुन रगड़ोॅ माँटी लेपोॅ
जल्दी मन के पाप दहाबोॅ
आँख मुनी के गांग नहाबोॅ।
जीयै वाला, रोज मरै छै
माँटी तर कुछ, शेष जरै छै
नील गगन में आग लगाबै
धुईयाँ-धक्कड़ दाग लगाबै
सब के जब अच्छे लागै ते
आँख मुनी के गांग नहाबोॅ।
छड़पन कक्का मरतै कहिनें
दम साधी के जरतै कहिनें
दौडोॅ तासा-मस्सक लानोॅ
ढोल बजाबोॅ निर्गुन गाबोॅ
सब सुतार में लागै तहूँ
आँख मुनी के गांग नहाबोॅ।
यहा दिनोॅ ले जतन करै छै
सोर-सवासिन हकन करै छै
पासबुक कोय बक्सा खोलै
कोय हिन्ने, कोय हुन्ने झोलै
मौका देखी लोर बहाबोॅ
आँख मुनी के गांग नहाबोॅ।
सूरदास के दुनिया झलकै
आँखबला पर बिजली मलकै
गीदर नेमना के रखबारोॅ
गाय भुखैली तैयो गारो
यहा बात पर शंख बजाबोॅ
आँख मुनी के गांग नहाबोॅ।