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गांधारी / प्रतिभा सिंह

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सुनो गांधारी!
काश की तुम पतिव्रता का ढोंग करने के लिए
आँखों पर पट्टी न बाँधती
काश की तुम अंधे पति से कह पाती
की मैं आपकी दो आंखे हूँ
देखिएगा इस बहुरंगी दुनियाँ को
मेरी ही दृष्टि से।
बन पाती एक अपाहिज पति का सहारा।
जानबूझकर अंधकार मोल न लेकर
उत्तरदायित्वों को बढ़कर गले लगाती।
तो देख पाती
की तुम्हारी संताने पथभ्रष्ट हो रही हैं
बिना उचित मार्गदर्शन के।
समझ पाती की
द्रोणाचार्य के गुरुकुल में
संताने ज्ञानी नहीं होतीं
मात्र रटती हैं
कुछ सुनी सुनाई बातें
जो समय के साथ भूलती जाती हैं।
याद रहता है तो बस
थोथा अहंकार
ज्ञानी होने का दम्भ।
जो उजाड़ देता है
किसी पांचाली की दुनियाँ
और अपने ही कुल को।
काश की तुम सीख पाती कुंती से
की पति परमेश्वर नहीं सखा होता है
यदि वह असमय काल का ग्रास हो जाये
या आगे बढ़कर जिम्मेदारियों को वहन न कर सके
तो भी स्त्री अपने साहस और आत्मविश्वास से
बदल सकती है दुनियाँ।
काश की तुम सिर्फ पत्नी न बनकर
एक माँ भी बनी होती
तो देखती की संस्कारविहीन कौरव
कुल के नाश का पथ प्रदर्शन कर रहे हैं
लालच और स्वार्थ में डूबकर।
तुम आंखे न मुंदती
तो देख पाती
कुन्तीपुत्रवधू में पुत्री का रूप।
तुम देख पाती
की पांचाली कोई साधारण स्त्री नहीं है
वह नाश कर देगी
तुम्हारे चरित्रहीन पुत्रों का झूठा दम्भ
क्योंकि वह अग्नि है स्वयं ही।
और अग्नि अपने दायरे में रहे तो सर्जक
अन्यथा तो वह संहारक ही है।
तो संहार को आमंत्रित किया तुम्हारे पुत्रों ने
क्योंकि वे मार्गदर्शन विहीन थे।
काश की तुम समझ पाती
की माता ही प्रथम गुरु है।
और एक माँ को नहीं है अधिकार
की वह आंखों पर पट्टी बाँधे
क्योंकि उसकी संताने हो सकती है
भ्रष्ट, लालची, स्वार्थी
और बलात्कारी
बिल्कुल तुम्हारे पुत्रों की तरह।
काश की तुम आंखों पर पट्टी न बाँधती
तो दे पाती संस्कार अपने पुत्रों को
सीखा पाती जीना
उन्हें साहस, धैर्य और स्वाभिमान से
बिल्कुल कुन्तीपुत्रों की तरह।
तो सम्भव था नहीं होता युद्ध
महान भारत के कुरुक्षेत्र में
तो नहीं देखना पड़ता तुम्हें
शत पुत्रों का शव
बन्द आंखों से।