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गांवों के जंगल शहर बो रहे हैं / कमलकांत सक्सेना
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गांवों के जंगल शहर बो रहे हैं
क्या करती हैं परिपाटियाँ इशारे?
हमारी मुट्ठियों में गगन
गगन में गलतफहमियाँ हैं।
इतिहास है हमारा 'कमल'
तुम्हारी परछाइयाँ हैं।
रूप मदिर आँखों में लेकिन बात प्यास की है
गर्म-गर्म सांसों ने दी सौगात प्यास की है।
कानाफूसी करके हमको बेघर करवाया, वह
अब अपने ही कपड़े फाड़ रहा है, बचना लोगो।
दो चार घड़ी ठहरेंगे, मन की बातें कह देंगे।
मन के उपवन में प्रियतम, सदा 'कमल' ही महकेंगे।
तुम-सी कोई नदिया होगी
हम-सा कोई सागर होगा।