भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गांव की एक रात / सुरेश विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काजल की कोठारी-सा
लगता है
रात के अंधेरे में
गांव...
भौंकते हैं रह-रह कर
किसी अज्ञात आशंका से
कुत्ते...

नीम की सरसराहट
और पीपल की
हल्की-सी खड़खड़ाहट तक
सहमा देती है
रात के पहले पहर में ही
लोगों को...

बच्चे को
कहानी सुनाती हुई
थकी हुई माँ
सो जाती है
बच्चे से पहले...

खटिया पर लेटा
वृद्ध गृहस्वामी
मन ही मन लगाता है
आने वाली फ़सल का हिसाब...

उसूक के भयावह स्वर जा
होता है प्रसारण
मरघट वाले बरगद से
और चमगादड़ों के
भारी पंखों की फड़फड़ाहट
झकझोर जाती है
गांव के आकाश की
निस्तब्धता को...

देव-बाबा के चबूतरे पर
जब कभी जुटती है सभा
तो बजता है ढफ
देर रात गये तक...

ब्याह-शादियों और
गीत-गोष्ठियों में भी
रात-रात भर चलता है
जागरण
पर कितनी रातें होती हैं
ऐसी?

अक्सर तो गाँव में
सांझ होते ही
ऊँघने लगता है
अफीमची की तरह...

अब सुना है कि गाँव में
आयेगी बिजली...
रोशनी के वृत्तों में
झिलमिलाएगा गांव...
देर रात तक लोग
बैठेंगे चौपाल पर
बतियाएंगे
देश-दुनिया कि बातें
और देखेंगे टेलीविजन
पंचायत-घर में...
बच्चे अपनी किताबें
पढ़ेंगे मनोयोग से...

कुत्ते भी
सोच-समझ कर ही
भौंका करेंगे
और अंधेरा
किसी जागीरदार की तरह
जोत नहीं पायेगा अब
गांव के खेत को।