अक्सर शहर की कविता में
गांव का दर्द नहीं होता
और गांव की कविता में
शहरी ठसका नहीं होता
दोनों विपरीत स्थितियों का
पक्ष लेते हैं
गांव वाले अपना और
शहरवासी अपना
दोनों को एक दूसरे का
आचार-विचार खाना-पीना
पसंद तो है मगर
जताना नहीं चाहते
दोनों घमंडी हैं न !
क्योंकि सेटेलाइट
टी.वी. पहुंच चुका है
शहर से लेकर
गांव के छज्जू चाचा के
घर तक
गांव में काका के घर
करीना, कपूर सैफ़
अली ख़ां से
लिपटती चिपटती है
तो काका खिसियाते हुए
बिरजू को पान की गिलौरी
बनाने शहर भेज देते हैं
और चुपचाप मजे़ से
देखते हैं टेलीविजन पर
उलटबांसी या योग आसन की
भ्रामक कर देने की वाली क्रियाएं
और शहर में यादव साहब जबसे
रिटायर हुए हैं तबसे
एफ.टी.वी. का
पीछा नहीं छोड़ते
उन्हें पसंद नहीं
गांव में रहना
एक बार किसी की
तेरहवीं में गए थे
गोबर में पैर सन गया था
महीनों दिमाग से बदबू नहीं
गई थी उन्हें पसंद है
तरीदार भोजन
शाम को एकाध पैग
कभी मिल जाए मुर्गे की टांग
तो सुभान अल्लाह !
वरना श्रीमती यादव तो
घीये की सब्जी पानीदार
ही देती हैं
बेचारे यादव जी
और छज्जू जी
गांव में, जीवन में अपने में मस्त हैं
खुला माहौल, स्वस्थ व्यंजन
जी भर कर हुक्का
ठंडी हवा
खुले में दिशा-मैदान
हो जाए नियम से
तो क्या ?
जीवन बेमिसाल है
अपनी ढपली अपना ही राग है
दोनों परिस्थितियां
बड़ी प्यारी हैं
हर एक को अपने जीवन से
अपनी दिनचर्या से लगाव है
इसलिए नहीं होती
शहरी कविता में
ग्रामीण हलचल की -
उलटवासियां
लेकिन ग्रामीण कविता में
छिपी होती है
हल्की-हल्की
लुका-छिपियां
छज्जू काका की
उन्हें शहर पसंद हैं
और पसंद हैं शहर वालियां ।