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गांव / अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'

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गांव की हवेली का हर राज पुराना है।
रौशन था जो आँगन आज वीराना है।।

मीठी-सी यादे हैं, रोने का बहाना है।
छोड़ा हमने देस, रोटी जो कमाना है।।

गांवों के बीते दिन, अब नया जमाना है।
अजनबी शहरों में हर शख्श अनजाना है।।

नेकी, सादगी, संतोष बात बचकाना है।
दौलत, शोहरत, ताक़त सफलता का पैमाना है।।

रह जाये न पीछे दौड़ लगाना है।
ठोकर खा के जो गिरे संभल कर उठ जाना है।।

सब दाव लगाकर क़िस्मत आज़माना है।
हार नहीं सकते मुंह जो दिखाना है।।

खुद को भुलाना है, मुखौटा लगाना है।
यूँही मुस्कुरा कर हर दर्द छुपाना है।।

पर मन में एक लगन, घर वापस जाना है।
हाथों में ले मिटटी माथे पर लगाना है।।

दिन हफ्ते रुक कर दिल को बहलाना है।
भारी मन फिर से उसी शहर में आना है।।

हवा, हरयाली, अपनापन सपना रह जाना है।
शहरों के दरबे में सारी उम्र बीताना है।।