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गाड़ी चल पड़ी / अज्ञेय
Kavita Kosh से
पैर उठा और दबा
धीमी हुई गाड़ी और रुक गयी।
इंजन घरघराता रहा।
मैं मुड़ा, एक लम्बी दीठ-भर
मेरी आँखों ने उस की
आँखों को थाहा।
कुछ कहा नहीं, न कुछ चाहा।
फिर पैर, हाथ, तन
पहले-से सध आये,
दीठ की खोज चुक गयी।
और गाड़ी चल पड़ी
मील पर मील पर मील।
मन थरथराता रहा।
काल के सवालों का
नहीं है मेरे पास कोई जवाब,
जो उसे- या किसी को-दे सकूँ।
इतना ही कि ऐसी अतर्कित चुप्पियों में
मिल जाती हैं जब-तब छोटी-छोटी अमरताएँ
जिस में साँस ले सकूँ।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 22 मार्च, 1969