भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाते रहे हम भजन जिंदगी के / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
गाते रहे हम भजन जिंदगी के
मंदिर से पूजे भवन जिंदगी के
कांटों बिंधे थे जो माटी सने थे
अच्छे लगे वो चरण जिंदगी के
अपनी ही खुशबू को पाने की खातिर
भागे बहुत हैं हिरण जिंदगी के
धुलते रहे जो इन अश्कों के जल से
उजले हुए वो वसन जिंदगी के
माली ने खुद को ही माटी बनाया
तब जाके महके चमन जिंदगी के
सूखी सी समिधा सरीखे जले हम
होते रहे हैं हवन जिंदगी के
संग-संग जिये और संग-संग मरे हैं
उर्मिल ये सारे सपन जिंदगी के।