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गान. / सुकान्त भट्टाचार्य

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जिस तरह खींचता है जल को ताप
उसी तरह खींचता हूँ तुम्हें
लगातार रोज़-रोज़ ।
तुम मुझे पहचान लो
छोड़ कर अपना तमाम छल ।

जानता हूँ तुम्हें कुछ कहना व्यर्थ है ।
तुम मेरी और मैं तुम्हारा हूँ मित्र ।
बन्द द्वार खोल कर
आओगी न कभी तुम भूल कर ।
रुकेगा न कभी मेरा आना-जाना ।
  
मूल बंगला से अनुवाद : नीलाभ