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गाय रोॅ माय / शिवनारायण / अमरेन्द्र

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रोजे साँझ केॅ
बर्त्तन ले लेॅ हमरी कनियांय
लै लेॅ दूध केॅ बाहर निकलै
राय जी अपनी गैया
आरो बाछी के संग
जबेॅ साँझ के पाँच बजै छै
टुनटुन-टुनटुन घण्टी बजैलें
होवै हाजिर
ठीक घरोॅ के हमरे लुग ही
सुनथैं घण्टी केरोॅ टुनटुन
कत्तेॅ-कत्तेॅ घोॅर-गली सें
जोॅर जना की, अधवैसु-बुतरु सब
जैतोॅ होलोॅ दूध लियै लेू।
राय जी तखनी बाछी गाय से
अलग करी केॅ बांधी दै छै
बिजली रोॅ खम्भ सें ओकर
फेनू गाय के
पिछला टाँगो केॅ बान्धै छै।
ओकरोॅ धन केॅ धोवै फेनू
पानी सें कत्ते नी दाफी
ओकरोॅ बादे अपनोॅ सधलोॅ अंगुरी सब में
धन केॅ होनै निचौड़ै
जेना कोय गोदैला गुतरू ठो ही
गाय रहै छै थिर ठाड़े ही
आरो बहेॅ लगै छै दूधो धरी धरी केॅ
टुक-टुक ताकै/थोड़े दूर में ठाड़ी बछिया
ओकरोॅ हेने भाग्य गढ़ैलोॅ।
देखथैं-देखथैं
थन में दूध-नदी छै सूखै
गाय छुटै छै/बछियो खोली देलेॅ जाय छै
जे लपकै छै/गैया केरोॅ थन के ओरी
मतर हमेशे ओकरोॅ थन तेॅ
खलिये मिलै छै, दुहला बादें
ओकरोॅ भाग्य तेॅ बंधलोॅ होलोॅ
घास-फूस सुखलोॅ चारा सें।
तहियो गाय होन्है केॅ थिर छै
ओकरा कोनो कुछुवो दुख नै
थन के हेनोॅ निचुड़ै के भी,
एक पूत के हक जो ढेरे
बेटा सब में बंटिये जाय छै
ओकरा तेॅ संतोखे एकरोॅ।
गाय, जेना कि देखै बाछी
होने ममता के आँखी सें
देखै छै ऊ सब चेहरो केॅ
(जे दूधोॅ के बर्त्तन ले लेॅ)
सब चेहरा पर वैं तेॅ देखे
अपने ठो बाछी के मुँह केॅ
ओकरोॅ बड़ोॅ बड़ोॅ कौड़ी रं
आन भाव नै कभियो ऐलै
थन निचुडै़ पर
गाय यही लेॅ गाय कहावै।
जबेॅ कभी भी हमरी कनियांय
हमरा चाय बनाय केॅ दै छै
रातोॅ में नींदोॅ के पहिले दूधो दै छै
आरो कलव्वोॅ साथें दिन में रहियो टा के
आकि दूध सें बनलोॅ कोनो आरो चीजे
जानेॅ कैन्हें हर दाफी ही
ओकरोॅ स्वाद के साथें-साथें
गैयो हमरोॅ मन के भीतर
रंभावेॅ लागै छै सुर में।
तखनी हमरोॅ देह में रोय्यां-रोय्यां ठो में
गाय के गंध बसै, बसले जाय
केना छूटवै गाय के ई गंधोॅ सें हम्में
कहियो जों गाँसोॅ सें ऐलोॅ
माय रोॅ चिट्ठी/ओकरोॅ आखर-आखर सें
बस-बस उठै छै वहा गाय के
हमरौ अपनी माय-आँखी में
कभियो तेॅ नै दिखलै कोनो भेद
जेना हमरे नै खाली
माय छेलै ऊ सौंसे मुहल्ला के बच्चा के
जे रं होय छै गाय मुहल्ले सौंसे ठोके
जे रं कि धरती माय होय छै सब्भे केरोॅ
जे रं कि सब्भे के होय छै सरंग हवा संग
पानी-आगो
वहा किसिम सें
गाय-माय, धरतीयो होय छै
सृष्टि केॅ अमृत-अन्नोॅ सें
भरथैं रहै छै।