गारुण मंत्र का कवि / शैलेन्द्र चौहान
स्व. कवि अनिल कुमार के लिए
मौत का सैलाब
ख़ून से लथपथ लाशें
और उसमें पका हुआ भात
लाशें सात...!
सात हजार...!
रोज़ के रोज़
यही होता है
ये सत्ता के भूखे गीदड़
रचते हैं रोज़
नई-नई व्यूह-रचना
इन्सानों के ख़ून से
पका भात खाने को
गारुण-मंत्र के कवि
तुम इन तांत्रिकों की
चपेट में आने से
नहीं बच सके
अब तुम्हारी याद शेष है
लिली टाकीज के पास
रेलिंग पकड़े
ताल को निहारते हुए!
तालाब में मछलियाँ
तैरती हैं बेआवाज़
ठहरे हुए पानी में
उठ रही है सड़ांध
तड़पता है बेआवाज़
मछलियों की तरह
आदमी बेजान
सत्ता का ज्वर
अब भी चढ़ा है वैसा ही
मनौतियां मांगी हैं
लोगों ने
पीपल के पेड़ में
कीलें ठोंक कर
आएगा एक दिन
बसंत का मौसम
चिड़ियों की बीट से
गंदला गए हैं पत्ते
भूल गए हैं
हम अपना अस्तित्व