भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गालियाँ / प्रेमरंजन अनिमेष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे आदिम प्रवृत्तियों की ओर
ले जाती हैं हमें

अब ये ठीक-ठीक पता नहीं
कि आदिम लोग
कौनसी ग़ालियाँ
देते थे
या कि देते भी थे या नहीं

शात्रीय साहित्य की
सबसे बड़ी चूक यह है
कि वह हमें
उस ज़माने की ग़ालियों की
जानकारी नहीं देता

जबकि हो सकता है कि ग़ालियों में
उस समय और संस्कृति का
अधिक प्रामाणिक और जीवन्त इतिहास हो
जैसे कि मृद्भाँडो में

यह गौर करना दिलचस्प है
कि मनुष्य और पशुओं की
आपसदारी से बनी हैं अधिकतर ग़ालियाँ
और पक्षियों पेड़ों और पत्थरों का
अभी आना इनमें शेष है

यूँ कहा यह भी जाता है
कि ईमानदार तीर की तरह हैं ग़ालियाँ
सामने वाला प्रतिकार के लिए तैयार न हो
तो वापस तरकश में
लौट आती हैं

इस तरह उनका कोश
भरा रहता

कोई कला चाहे वह कैसी भी हो
अपनी पूरी तन्मयता में
अन्य उन्नत कलाओं के पास पहुंच जाती है
इस तरह सुबह सवेरे स्नान करते
पूरी चिन्ता पूरी लय में
ग़ालियों की मंत्रमाला गूँथते आदमी की कोशिश
बिल्कुल एक भजन प्रार्थना वन्दना सी
लग सकती है

हार न मानने वाली स्‍त्री के पास
नाखूनों के सिवा
उसका हथियार हैं गालियाँ ही

और जर्जर बूढ़े के लिए
निरीहता के बाद
उसकी ढाल

बच्चों के लिए
उनकी फुन्नी को छोड़कर
यही एक शगल

जैसे कवि के पास
सीधे विदोह कर
मारे जाने के अलावा
रास्ता कविता लिखने का

समय और दौर के साथ
ग़ालियाँ
मान्य हो सकती हैं
और मान्यताएँ
ग़ाली

जैसे सज्जन आदर्शवादी ईमानदार
कहना किसी को अभी
उसे ग़ाली देने की तरह हो सकता है

जब याद करो तब आ जाती हैं
इसलिए लम्बी उम्र है
ग़ालियों की

भाषाविज्ञानी नहीं मैं
लेकिन जाने क्यों लगता है
किसी जुबान को धार के लिए
लौटना होगा अपनी ग़ालियों के पास

और हालाँकि समाजशात्र उतना ही
जानता हूँ जितना पेड़ की जड़ें
मगर यह भी लगता है
कि जब कहीं नहीं रहेंगे
तो ग़ालियों में ही बचे रहेंगे रिश्ते

क्या ये सच नहीं
कि आत्मीयता का सबसे मधुर और जीवन्त छन्द
मण्डप की थाल पर
दी गई ग़ालियों में है !