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गालियों की परिधियों में संस्कृतियाँ / महेश सन्तोषी

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गालियों के उद्भव और अन्त के बीच की सारी
शब्द-सृष्टियाँ ‘सेक्स’ के आस-पास क्यों मँड़राती हैं?
इसका सही-सही उत्तर कोई समदृष्टि शिक्षाशास्त्री या
सामयिक सतहों का निपुण पारखी ही बता सकता है।
हम बस इतना भर जानते हैं कि इनका अतीत, वर्तमान और भविष्य
केवल दो शब्द पहचानते हैं-सार्वभौमिक और भू-मण्डलीय!

क्योंकि ये देश और काल की सीमाएँ नहीं मानतीं,
ये सभी भाषाओं में दी जाती हैं, ये समय से बँधकर नहीं चलतीं,
ये समय को बाँधकर चलती हैं!
इनकी सन्धियाँ और समास, अलंकार एवं अनुप्रास, समूचे व्याकरण
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी दोहराए जाते हैं,
ऐसे व्याकरण वारिसों को विरासत में लिए-दिए जाते हैं।
लिखित में कहीं पीछे नहीं छोड़े जाते!
ऊँची से ऊँची सभ्यता का सर नीचा करने की इनमें तात्कालिक क्षमता है,
सभ्य से सभ्य व्यक्ति को, वक्त आने पर
असभ्य साबित करने की इनमें सहज सामयिकता है!
इस सबके बाद भी, मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि
सदियों से हर समाज में लोग गालियाँ क्यों बकते हैं?
और उनके केन्द्रबिन्दु भी वैसे के वैसे, स्थायी और स्थिर बने रहते हैं!

हम शायद सेक्स को निजी और व्यक्तिगत स्तर पर जितने अपनत्व से स्वीकार करते हैं
उतना ही सामाजिक और सार्वजनिक रूप से उसका तिरस्कार और बहिष्कार करते हैं।
गालियाँ हमारे इस सनातन पाखण्ड का उज्ज्वलतम दर्पण हैं,
और असम्मानित होने पर भी प्रामाणिक मापदण्ड हैं!