भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाली सुनकर भी, जो मन में / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
गाली सुनकर भी, जो मनमें जरा नहीं दुख पाता है।
क्रोध दिलाने पर भी, जिसको क्रोध नहीं कुछ आता है॥
कड़वे वचन कदापि न कहता मर्म-बेध करनेवाले।
वचन सत्य, हित, मधुर बोलता, अमरित बरसानेवाले॥
पर-दुखसे हो दुखी, सदा जो पर-सेवा करता रहता।
दुःख उठाकर स्वयं, दूसरेके दुख नित हरता रहता॥
कपट-दभ-अभिमान छोड़, जो सबका करता है समान।
हरिका हो, जो भजता हरिको, परम धर्म जीवनका मान॥
अपने शुभ आचरणोंसे जो हरता है पर-दुख-अज्ञान।
जगमें सबसे श्रेष्ठ वही है, वही जगतमें सदा महान॥