उन दिनों जब क्लियोपेट्रा रात्रिकालीन आसनों के अभ्यास में थी
उसका अनुकरण कर रहीं थीं सैकड़ों नगर वधुएँ
मुक्ताकाशी मंच सजा था तोरणों से
सभी ने हाथ हिला कर महान राजा के पुष्पक का स्वागत किया
मंच से स्वर गूंजा ‘कैसे हैं आप लोग ?’
भीड़ ने गगन भेदी नारों से प्रत्युत्तर दिया
राजा ख़ुश हुआ ‘कोई दिक्कत तो नहीं है न ?’
भीड़ ने यंत्रवत पुनरावृत्ति की
राजा ने भीड़ के विकास की पोथी बाँची
श्रेष्ठ सिपहसालारों को तमगे दिए
दासों को गिन्नियां ,जो बाद में प्यादों ने छीन भी लीं
उस रात महाभोज यादगार रहा
यादगार रहां क्लियोपेट्रा का समर्पण
तम्बुओं से तड़के तक आती रही चूड़ियों के टूटने खनकने की आवाज़
मुक्ताकाशी मंच की सीढ़ियों पर मदिरा की गंध से ही बेसुध थी रियाया
सुबह खोल दी गयीं उसके पांवों की बेड़ियाँ
हटा दिए गए आँखों से कजरौटे
पूरा हो चुका था नस्ल सुधार का महायज्ञ
उस रात की सुबह से पहले ही तम्बू से निकल गयी थी क्लियोपेट्रा
सुबह रियाया ने देखा झील पर उतराई हुई मत्स्यकन्या
मृत शरीर पर गिद्धों के समूह गान के बीच
उस सुबह पहली बार रियाया ने जाना अपने अभिशप्त होने का सत्य