गिद्ध / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
सारी-सारी दोपहर खेत मैदान पर
एशिया के आकाश में
हाट-घाट बस्ती, निस्तब्ध प्रान्तर
जहाँ खेत में दृढ़ नीरवता खड़ी रहती है
वहाँ भी आदमी देखता है केवल गिद्ध खा रहे हैं।
आकाश से परस्पर एक आकाश की तरह
रोशनी से उतारकर
उनींदे दिक्पाल बने हाथियों जैसे दुरूह बादल से
गिर पड़े हों-पृथ्वी में एशिया के-खेत मैदान पर।
कुछ ही क्षण ये त्यक्त पक्षी रुकते हैं, फिर आरोहण
अभी काले विशाल डैने ताड़ पर
और अभी पहाड़ के शिखर-शिखर-फिर समुद्र पार
एक पल पृथ्वी की शोभा को निहारते हैं
फिर आँखें थिर कर देते-लाश लेकर कब जहाज़ आ रहा है,
बम्बई सागर तट पर।
बन्दरगाह अंधकार में भिड़ कर प्रतीक्षा करते हैं,
और फिर साफ़ मालाबार में उड़ जाते हैं,
फिर किसी ऊँचे मीनार की कगार से-
पृथ्वी के पक्षियों को भूलकर उड़ जाते हैं जाने किस मृत्यु के पार...
जाने वैतरणी या इस जीवन विच्छेद की खीजभरी कटुता से
रोते रहते हैं, मुड़कर कभी न देख घनी नीलिमा में मिल जाते हैं गिद्ध।