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गिध्द / शिरीष कुमार मौर्य

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हंस में प्रकाशित

किसी के भी प्रति

उनमें कोई दुर्भावना नहीं थी

वे हत्यारे भी नहीं थे

हालाँकि बहुत मज़बूत और नुकीली थी

उनकी चोंच

पंजे बहुत गठीले ताक़तवर

और मीटर भर तक फैले

उनके डैने

वे बहुत ऊँची और शान्त उड़ानें भरते थे

धरती पर मँडराती रहती थी

उनकी अपमार्जक छाया

दुनिया भर के दरिन्दों-परिन्दों में

उनकी छवि

सबसे घिनौनी थी

किसी को भी डरा सकते थे

उनके झुर्रीदार चेहरे

वे रक्त सूँघ सकते थे

नोच सकते थे कितनी ही मोटी खाल

माँस ही नहीं

हड्डियाँ तक तोड़कर वे निगल जाते थे

लेकिन

वे कभी बस्तियों में नहीं घुसते थे

नहीं चुराते थे छत पर और ऑंगन में पड़ी

खाने की चीजें

वे पालतू जानवरों और बच्चों पर

कभी नहीं झपटते थे

फिर भी हमारे बड़े

हमें उनके नाम से डराते थे

बचपन की रातों में

अपने विशाल डैने फैलाये

वे हमारे सपनों में आते थे

बहुत कम समझा गया उन्हें

इस दुनिया में

ठुकराया गया सबसे ज्यादा

ज़िन्दगी का रोना रोते लोगों के बीच

वे चुपचाप अपना काम करते रहे

धीरे-धीरे सिमटती रही उनकी छाया

बिना किसी को मारे

बिना किसी दुर्भावना के

मृत्यु को भी

उत्सव में बदल देने वाली

उनकी वह सहज उपस्थिति

धीरे-धीरे दुर्लभ होती गयी

हालाँकि उनके बिना भी

बढ़ता ही जायेगा ज़िन्दग़ी का ये कारवाँ

लेकिन उसके साथ ही

असहनीय हाती जायेगी

मृत्यु की सड़ाँध

हमारी दुनिया से

यह किसी परिन्दे का नहीं

एक साफ़-सुथरे भविष्य का

विदा हो जाना है।
-2004-