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गिरना और संभलना जीवन का मूल है / जतिंदर शारदा
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गिरना और संभलना जीवन का मूल है
यह ज़िन्दगी हमारी कांटों में फूल है
मनुज जीवन यद्यपि लगता बबूल है
कीचड़ में मुस्कुराता हुआ कमल फूल है
राह पर जो चल पड़े तो बीच राह में
गलत ठीक सोचना बिल्कुल फजूल है
तम को मिटा रही है ख़ुद को जला जला
यह तो किसी मज़ार के दीपक की तूल है
अच्छा है या बुरा है इसे जानता है कौन
मुझको तो जो मिला है दिल से कबूल है
तुम से ही कायनात है तुम से ही है वजूद
तू ही मेरा खुदा है तू ही रसूल है
अनुकूल की है कामना प्रतिकूल कार्य में
फूल की ललक है मन में बीजा बबूल है
मंजिल है दूर पास कभी सोचता नहीं
लेकिन क़दम बढ़ाना ही मेरा असूल है
पत्थर की मूर्ति को कहते हैं सारे ठोस
दृष्टि आभास ही तो लगता स्थूल है