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गिरने वाला कहां सम्भलता है / शोभा कुक्कल

गिरने वाला कहां सम्भलता है
आखिरे-कार हाथ मलता है

रौशनी गुल है शहर भर की आज
झोंपड़ी में चराग़ जलता है

जो कमाता है नेक नीयत से
उसका पैसा हमेशा फलता है

उसके सीने में दिल है पत्थर सा
और पत्थर कहां पिघलता है

काम सूरज का है यही हर दिन
सुब्ह उगता है शाम ढलता है

आज का काम कल पे मत छोड़ो
वरना वह सुब्ह शाम टलता है

साथ फैशन के मत कभी चलना
रंग गिरगिट सा ये बदलता है

काफ़िला कुछ हसीन यादों का
हर घड़ी मेरे साथ चलता है

हर हसीं शय को देख कर अक्सर
उस को पाने को दिल मचलता है

हर किसी पर यकीन कर लेना
ऐसी 'शोभा' मिरी सरलता है।