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गिरफ़्तारिए दिल / नज़ीर अकबराबादी

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जिस दिन से अदा मुझको उस बुत की लगी प्यारी।
और खप गयी आँखों में चंचल की तरह दारी॥
दिल फँस गया जुल्फों में उस शोख़ के इकबारी।
दिवानगी आ पहुँची जाती रही होशियारी॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

मिलता हूँ जो टुक जाकर तो मुझसे वह लड़ता है।
कुछ बात जो कहता हूँ झुँझला के झगड़ता है॥
गर्दन को पकड़ मेरी सर को भी रगड़ता है।
जो-जो वह दिखाता है सब देखना पड़ता है॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

एक चाह के दरिया में दिन रात मैं बहता हूँ।
गोता भी जो खाता हूँ तो कुछ नहीं कहता हूँ॥
हरदम के सितम उसके मैं खींचता रहता हूँ।
जो जुल्म वह करता है नाचार मैं सहता हूँ॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

सूरत जो कभी उसकी टुक देखने जाता हूँ।
त्यौरी वह चढ़ाता है मैं खौफ़ में आता हूँ॥
झिड़के है खफ़ा होकर जब हाल दिखाता हूँ।
वह गालियाँ देता है मैं सर को झुकाता हूँ॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

दिल दे के मुझे यारो दुख दर्द हुआ लाहा।
पलकों ने सितमगर की अब दिल को मेरे राहा॥
रोता हूँ तो कहता है क्यों तूने मुझे चाहा।
जितना वह सताता है कहता हूँ अहा! हा! हा!
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

कहता है तुझे तो मैं हर आन कुढ़ाऊँगा।
कुचलूँगा तेरे दिल को और जी को जलाऊँगा॥
कूँचे से निकालूँगा हर वक्त सताऊँगा।
मैं उस से ये कहता हूँ ”जी सब ये उठाऊँगा“॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

कीजेगा रवाना तो थैली को भरूँगा मैं।
जो चीज़ मंगाओगे ला आगे धरूँगा मैं॥
रातों को निगहबानी करते न डरूँगा मैं।
चप्पी को जो कहिएगा चप्पी भी करूँगा मैं॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

बैठोगे तो हर साअत रूमाल झलूंगा मैं।
गर्मी में जो कहिएगा तो पीठ मलूँगा मैं॥
खि़दमत की जो बातें हैं उनसे न टलूँगा मैं।
जाओगे कहीं जिस दम तो साथ चलूँगा मैं॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

दर पर जो बिठाओगे दरबान कहाऊँगा।
फर्राश बनाओगे तो फर्श बिछाऊँगा॥
तौसन के भी मलने से मुँह को न फिराऊँगा।
गर घास मंगाओगे तो घास भी लाऊँगा॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

तक़्सीर न होयेगी कुछ खि़दमते सामी में।
होगा वही आएगा जो राय गिरामी में॥
आने को नहीं हरगिज खातिर मेरी खामी में।
हाजिर है ”नज़ीर“ ऐं जाँ इस वक्त गुलामी में॥
क्या कीजिए हुई अब तो याँ दिल की गिरफ़्तारी॥

शब्दार्थ
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