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गिरि-मरु / अन्योक्तिका / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

पर्वत - पड़ओ पानि-पाथर, बहओ अन्हड़ झाँट बसात
वज्रपात होइतहुँ हिलय नहि गिरि गौरव गात।।19।।
अन्हड़ करय अन्हेर, गाछ-पात घर-टाट लय
किन्तु पर्वतक बेर, भिड़ितहिँ घुरइछ बाट धय।।20।।

मरु - सागर छल छलकैत जत, तत सिकताहिक ढेर
एहन मर्म इतिहास अछि मरुक कर्महि क फेर।।21।।