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गिर गए थे सब्ज़ मंज़र टूट कर / ज़फ़र ताबिश
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गिर गए थे सब्ज़ मंज़र टूट कर
रह गया मैं अपने अंदर टूट कर
सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
रो रहा था नीला अम्बर टूट कर
मैं सिमट जाऊँगा ख़ुद ही दोस्तो
मैं बिखर जाता हूँ अक्सर टूट कर
और भी घर आँधियों की जद में थे
गिर गया उस का ही क्यूँ घर टूट कर
रो रहा है आज भी तक़्दीर पर
सब्ज़-गुम्बद से वो पत्थर टूट कर
अब नहीं होता मुझे एहसास कुछ
मैं हूँ अब पहले से बेहतर टूट कर
चंद ही लम्हों में ‘ताबिश’ बह गया
मेरी आँखों में समुंदर टूट कर