उनके रोने से धरती भीज रही है...!
जिन शहरों में गिलहरियों की क़त्लगाह हों
वो शहर ख़ूबसूरत कैसे हो सकते हैं !
मेरी एक दोस्त कहती है —
बस, तुम बनारस आओ
मुझे तुम्हें अपनी नज़र से बनारस दिखाना है
फिर वो बनारस की संस्कृति, कला, मन्दिर, घाट, बाज़ार की भीड़
बखानते हुए डूब जाती है
इधर मैं चुप हो जाती हूँ
मुझे तुम याद आने लगती हो !
इसी बनारस की किसी गली में ख़ूब चीख़ी होगी तुम
घण्टे-घड़ियाल के शोर में दब गई होंगी तुम्हारी चीख़ें
मैं जानती हूँ अपनी माँ को पुकारते हुए तुमने
मुझे भी एक बार पुकारा होगा, उसी चिर-परिचित सम्बोधन में — भाभी !
जैसे एक बार करण्ट लगने पर घर लोगों से भरा था
पर तुमने मुझे ही पुकारा था
तुम नहीं जानती वो चीख़ मैं नींद में सुनती हूँ
और जाग जाती हूँ, एक पहर तक रोती हूँ
फिर तुम्हारी यादों में खो जाती हूँ
संसार मे इतना प्यार है तुमसे पहले मुझे एहसास नहीं था
बिसारती की आवाज सुन तुम मेरी तरफ़ ऐसे देखती जैसे नवजात बछड़ा गाय को निहारता है
मैं तुम्हें कुछ दिला देती जैसे रिबन क्लिप या तुम्हारे लिए सस्ते से अन्तःवस्त्र
तुम शरमाते हुए दिन भर मुझे कृतज्ञता से देखती
मुझे सँवारना तुम्हारा सबसे प्रिय खेल था
मैं कितना भी डाँटती और कहती — घर जाओ
तुम जब तक मेरी माँग काढ़कर बसन्ती सिन्दूर न भर देती, जाती नहीं थी
तुम पैरों में महावर लगाती और हाथों में नेलपेंट लगाने के लिए तरसती
क्योंकि मेरे हाथ में किताबें होतीं
मुझे तुम्हारे हाथ में किताब देखने की कितनी साध थी
ये तुमसे ज्यादा कौन जानता है,
पर तुम्हारी माँ के कारण तुम सिर्फ अक्षर सीख पाई
मैं शरत (चन्द्र) को पढ़ती कि स्त्रियाँ जिस हद तक घृणा तिरस्कार सह सकती हैं
उतना संसार में कोई नहीं
ये मैंने तुममे देखा था
तुम्हारी आजी आती अक्सर
तब तुम आँगन में खाना खा रही होती, वे कितनी घृणित गालियां देती तुम्हें
मैं डांट देती उन्हें गुस्से से पर तुम हंसकर सिर नीचे कर लेती,
और मेरे वो सब सुन लेने पर शर्मिंदा होती
सब कहते हैं वो लड़का तुम्हारा प्रेमी था
हो भी सकता है,
पर मैं कहती हूँ — तुम्हें प्रेम करने लायक साथी
ईश्वर ने नहीं बनाया था
सब कहते हैं कि उसने तुम्हें ले जाकर बनारस में बेचा
मैं जानती हूँ किसी ने ध्यान से देखा नहीं होगा
जिस कमरे में तुम चीख़ी होगी
उस कमरे की दीवारों में दरारें फट गई होंगी
तुम्हारे घर तुम्हारा कभी नाम नहीं लेता
क्योंकि तुम्हारा भाग जाना तुम्हारी मौत से कहीं बड़ी त्रासदी है
कोई कहता है — ज़िन्दा हो नेपाल में हो
मेरे एक बड़े भइया कहीं यात्रा पर जाते है तो
अपने बचपन के चरवाह बिपत दादा को ढूढते हैं
जिनकी थाली से कौर उठाकर बचपन में खा लेने पर
दादी ने भइया को बखार में बन्द कर दिया था
अब दादा पागल होकर कहीं अपने घर से चले गए थे
भइया जहाँ कहीं जाते हैं
सड़क के पागलों भिखारियों में उन्हें ढूँढ़ते हैं
बहुत बार मन हुआ कि कहूँ
कि तुम्हें भी ढ़ूँढ़ें
पर जानती हूँ वो कहेगें — नाम न लो उस बेहया का
तब मैं नहीं कह पाऊँगी कि वो बेहया नहीं थी
बेहया होती तो फिर से इस समाज की छाती पर आकर उग जाती
वो तो बेहया का हल्का नीला फूल थी
जिसके शीतल सौन्दर्य को देख धरती तृप्त होती है
रात को सन्नाटा होने पर एक साँवली सी लड़की
मेरे कमरे के डेहरिचे पर बैठकर भाभी कहकर सिसक उठती है
मैं अपने साथी से अक्सर कहती हूँ — जैसे कहीं कोई रो रहा हो
वो कहते हैं — बिल्ली के बच्चे होंगे !
तुम सो जाओ
अब किसी को तुम याद नहीं हो
और मुझे भूलती नहीं हो
तुम चली जाओ, गुड़िया !
मेरे जेहन से अब सहा नहीं जाता
तुम किसी दूर देश चली जाओ,
जहाँ परियाँ और तितलियाँ रहती हैं
जहाँ लोरियों में प्रेम के क़िस्से सुनाए जाते हो
जहाँ प्रेम के लिए भागकर जान न गवानी पड़ती हो
जहाँ एक विधवा और विकलांग को प्रेम हो जाने पर
सिर मुड़ाकर खालिक पोत गधे पर न घुमाया जाता हो
जहाँ प्रेमिका से मिलने उसके घर गया प्रेमी
ज़िन्दा लाश बनकर न लौटता हो
जहाँ प्रेम हो जाना एक फूलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता हो
जहाँ नदियाँ पाटी न जाती हों
हरे पेड़ काटे न जाते हों
जहाँ पिता कहता हो — ब्याह इतना भी जरूरी नहीं होता, मेरी लाडो !
यहाँ बुलबुले दुःख की लोरी से सोती हैं और
डर, तिरस्कार की प्रभाती से जागती हैं
उनके रोने से धरती भीज रही है ...!