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गिला कैसा / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
इस रात में बस बरस रही है हँसी
पुराने इश्क के गुलमोहर से
झर रहे फूल पत्ते
बासी और पीले पड़ गये
मेरा आइना
दरक जाता है सच पर मेरे
और गुलमोहर की वो एक डाल जो
मेरे कमरे से तुम तक जाती थी वो सूख रही है
तुम्हारे झूठ और वहम का पौधा हरा रहे
तुम्हारा आइना तुम पर हँसता रहे
मेरे दरके हुए आइने का सुकून
कोई खाक समझेगा
ये आसान काम है
तुम भी कर ही लो
मेरे नाम चंद कहानियाँ गढ ही लो
मेरी गवाही बस मेरा खुदा है
सोचती हूँ रंज पालूँ
पर अजनबियों से गिला कैसा!!