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गीतावली अयोध्याकाण्ड पद 61 से 70/पृष्ठ 4

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भरतजी का चित्रकूटको प्रस्थान

मेरो अवध धौं कहहु, कहा है |
करहु राज रघुराज-चरन तजि, लै लटि लोगु रहा है ||

धन्य मातु, हौं धन्य, लागि जेहि राज-समाज ढहा है |
तापर मोको प्रभु करि चाहत सब बिनु दहन दहा है ||

राम-सपथ, कोउ कछू कहै जनि, मैं दुख दुसह सहा है |
चित्रकूट चलिए सब मिलि, बलि, छमिए मोहि हहा है ||

यों कहि भोर भरत गिरिवरको मारग बूझि गहा है |
सकल सराहत, एक भरत जग जनमि सुलाहु लहा है ||

जानहिं सिय-रघुनाथ भरतको सील सनेह महा है |
कै तुलसी जाको राम-नामसों प्रेम-नेम निबहा है ||