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गीतावली अयोध्याकाण्ड पद 71 से 80/पृष्ठ 1
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जानत हौ सबहीके मनकी |
तदपि,कृपालु करौं! बिनती सोइ सादर सुनहु दीन-हित जनकी ||
ये सेवक सन्तत अनन्य अति, ज्यों चातकहि एक गति घनकी |
यह बिचारि गवनहु पुनीत पुर, हरहु दुसह आरति परिजनकी ||
मेरो जीवन जानिय ऐसोइ, जियै जैसो अहि, जासु गई मनि फनकी |
मेटहु कुलकलङ्क कोसलपति, आग्या देहु नाथ मोहि बनकी ||
मोको जोइ लाइय लागै सोइ उतपति है कुमातुतें तनकी |
तुलसिदास सब दोष दूरि करि प्रभु अब लाज करहु निज पनकी ||