भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीतावली अयोध्याकाण्ड पद 71 से 80/पृष्ठ 8
Kavita Kosh से
(78)
प्रभुसों मैं ढीठो बहुत दई है |
कीबी छमा, नाथ! आरतितें कही कुजुगुति नई है ||
यों कहि, बार बार पाँयनि परि, पाँवरि पुलकि लई है |
अपनो अदिन देखि हौं डरपत, जेहि बिष बेलि बई है ||
आए सदा सुधारि गोसाईँ, जनतें बिगरि गई है |
थके बचन पैरत सनेह-सरि, पर्यो मानो घोर घई है ||
चित्रकूट तेहि समय सबनिकी बुद्धि बिषाद हई है |
तुलसी राम-भरतके बिछुरत सिला सप्रेम भई है ||