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गीतावली अयोध्याकाण्ड पद 71 से 80/पृष्ठ 8

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प्रभुसों मैं ढीठो बहुत दई है |
कीबी छमा, नाथ! आरतितें कही कुजुगुति नई है ||

यों कहि, बार बार पाँयनि परि, पाँवरि पुलकि लई है |
अपनो अदिन देखि हौं डरपत, जेहि बिष बेलि बई है ||

आए सदा सुधारि गोसाईँ, जनतें बिगरि गई है |
थके बचन पैरत सनेह-सरि, पर्यो मानो घोर घई है ||

चित्रकूट तेहि समय सबनिकी बुद्धि बिषाद हई है |
तुलसी राम-भरतके बिछुरत सिला सप्रेम भई है ||