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गीतावली उत्तरकाण्ड पद 1 से 10 तक/पृष्ठ 5

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देखु सखि! आजु रघुनाथ-सोभा बनी |
नील-नीरद-बरन बपुष भुवनाभरन,
पीत-अंबर-धरन हरन दुति-दामिनि ||

सरजु मज्जन किए, सङ्ग सज्जन लिए,
हेतु जनपर हिये, कृपा कोमल घनी |
सजनि आवत भवन मत्त-गजवर, गवन,
लङ्क मृगपति ठवनि कुँवर कोसलधनी ||

सघन चिक्कन कुटिल चिकुर बिलुलित मृदुल,
करनि बिबरत चतुर, सरस सुषमा जनी |
ललित अहि-सिसु-निकर मनहु ससि सन समर
लरत, धरहरि करत रुचिर जनु जुग फनी ||

भाल भ्राजत तिलक, जलज लोचन, पलक,
चारु भ्रू, नासिका सुभग सुक-आननी |
चिबुक सुन्दर, अधर अरुन, द्विज-दुति सुघर,
बचन गम्भीर, मृदुहास भव-भाननी ||

स्रवन कुण्डल बिमल गण्ड मण्डित चपल,
कलित कलकान्ति अति भाँति कछु तिन्ह तनी |
जुगल कञ्चन-मकर मनहु बिधुकर मधुर
पियत पहिचानि करि सिन्धुकीरति भनी ||

उरसि राजत पदिक, ज्योति रचना अधिक,
माल सुबिसाल चहुँ पास बनि गजमनी |
स्याम नव जलदपर निरखि दिनकर-कला
कौतुकी मनहुँ रही घेरि उडुगन-अनी ||

मन्दिरनिपर खरी नारि आनँद-भरी,
निरखि बरषहिं बिपुल कुसुम कुङ्कुम-कनी |
दास तुलसी राम परम करुनाधाम,
काम-सतकोटि-मद हरत छबि आपनी ||