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सुनि ब्याकुल भए, उतरु कछु कह्यो न जाइ |
जानि जिय बिधि बाम दीन्हों मोहि सरुष सजाइ ||
कहत हिय मेरी कठिनई लखि गई प्रीति लजाइ |
आजु अवसर ऐसेहू जौं न चले प्रान बजाइ ||
इतहि सीय-सनेह-सङ्कट उतहि राम-रजाइ |
मौनही गहि चरन, गौने सिख-सुआसिष पाइ ||
प्रेम-निधि पितुको कहे मैं परुष बचन अघाइ |
पाप तेहि परिताप तुलसी उचित सहे सिराइ ||