(26)
राम बिचारि कै राखी ठीक दै मन माहिं |
लोक-बेद-सनेह पालत पल कृपालहि जाहिं ||
प्रियतमा, पति देवता, जिहि उमा रमा सिहाहिं |
गुरुविनी सुकुमारि सिय तियमनि समुझि सकुचाहिं ||
मेरे ही सुख सुखी, सुख अपनो सपनहूँ नाहिं |
गेहिनी-गुन-गेहिनी गुन सुमिरि सोच समाहिं ||
राम-सीय-सनेह बरनत अगम सुकबि सकाहिं |
रामसीय-रहस्य तुलसी कहत राम-कृपाहिं ||