भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली पद 101 से 110 तक/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

104
राग केदारा
मनमें मञ्जु मनोरथ हो, री !
सो हर-गौरि-प्रसाद एकतें, कौसिक, कृपा चौगुनो भो, री !||

पन-परिताप, चाप-चिन्ता निसि, सोच-सकोच-तिमिर नहिं थोरी |
रबिकुल-रबि अवलोकि सभा-सर हितचित-बारिज-बन बिकसोरी ||

कुँवर-कुँवरि सब मङ्गल मूरति, नृप दोउ धरमधुरधर धोरी |
राजसमाज भूरि-भागी, जिन लोचन लाहु लह्यो एक ठौरी ||

ब्याह-उछाह राम-सीताको सुकृत सकेलि बिरञ्चि रच्यो, री |
तुलसिदास जानै सोइ यह सुख जेहि उर बसति मनोहर जोरी ||