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गीतावली पद 81 से 90 तक/पृष्ठ 9

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089.रागमारु

सुनो भैया भूप सकल दै कान |
बज्ररेख गजदसन जनक-पन बेद-बिदित, जग जान ||

घोर कठोर पुरारि-सरासन, नाम प्रसिद्ध पिनाकु |
जो दसकण्ठ दियो बाँवों, जेहि हर-गिरि कियो है मनाकु ||

भूमि-भाल भ्राजत, न चलत सो, ज्यों बिरञ्चिको आँकु |
धनु तोरै सोई बरै जानकी, राउ होइ कि राँकु ||

सुनि आमरषि उठे अवनीपति, लगै बचन जनु तीर |
टरै न चाप, करैं अपनी सी महा महा बलधीर ||

नमित-सीस सोचहिं सलज्ज सब श्रीहत भए सरीर|
बोले जनक बिलोकि सीय तन दुखित सरोष अधीर ||

सप्त दीप नव खण्ड बूमिके भूपतिबृन्द जुरे |
बड़ो लाभ कन्या-कीरतिको, जहँ-तहँ महिप मुरे ||

डग्यौ न धनु, जनु बीर-बिगत महि, किधौं कहुँ सुभट दुरे |
रोषे लखन बिकट भृकुटी करि, भुज अरु अधर फुरे ||

सुनहु भानुकुल-कमल-भानु ! जो तव अनुसासन पावौं |
का बापुरो पिनाकु, मेलि गुन मन्दर मेरु नवावौं ||

देखौ निज किङ्करको कौतुक, क्यों कोदण्ड चढ़ावौं |
लै धावौं, भञ्जौं मृनाल, ज्यों, तौ प्रभु-अनुग कहावौं ||

हरषै पुर-नर-नारि, सचिव, नृप कुँवर कहे बर बैन |
मृदु मुसुकाइ राम बरज्यौ प्रिय बन्धु नयनकी सैन ||

कौसिक कह्यो, उठहु रघुनन्दन, जगबन्दन, बलाइन |
तुलसिदास प्रभु चले मृगपति ज्यौं निज भगतनि सुखदैन ||