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गीतावली लङ्काकाण्ड पद 21 से 23 तक/पृष्ठ 1

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 (21)
 अयोध्यामें आनन्द
 
  रागधनाश्री
  सुनियत सागर सेतु बँधायो |
  कोसलपतिकी कुसल सकल सुधि कोउ इक दुत भरत पहँ ल्यायो ||

  बध्यो बिराध, त्रिसिर, खर-दूषन सूर्पनखाको रूप नसायो |
  हति कबन्ध, बल-अंध बालि दलि, कृपासिन्धु सुग्रीव बसायो ||

  सरनागत अपनाइ बिभीषन, रावन सकुल समूल बहायो |
  बिबुध-समाज निवाजि, बाँह दैं बन्दिछोर बर बिरद कहायो ||

  एक-एकसों समाचार सुनि नगर लोग जहँ तहँ सब धायो |
  घन-धुनि अकनि मुदित मयूर-ज्यों, बूड़त जलधि पार-सो पायो ||

  "अवधि आजु यौं कहत परसपर, बेगि बिमान निकट पुर आयो |
  उतरि अनुज-अनुगनि समेत प्रभु गुर-द्विजगन सिर नायो ||

  जो जेहि जोग राम तेहि बिधि मिलि, सबके मन अति मोद बढ़ायो |
  भेण्टी मातु, भरत भरतानुज, क्यों कहौं प्रेम अमित अनमायो ||

  तेही दिन मुनिबृन्द अनन्दित तुरत तिलकको साज सजायो |
  महाराज रघुबंस-नाथको सादर तुलसिदास गुन गायो ||