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गीतावली सुन्दरकाण्ड पद 11 से 20 तक/पृष्ठ 7

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राग जैतश्री

सुनहु राम बिश्रामधाम हरि! जनकसुता अति बिपति जैसे सहति |
"हे सौमित्रि-बन्धु करुनानिधि!मन महँ रटति, प्रगट नहिं कहति ||

निजपद-जलज बिलोकि सोकरत नयननि बारि रहत न एक छन |
मनहु नील नीरजससि-सम्भव रबि-बियोग दोउ स्रवत सुधाकन ||

बहु राच्छसी सहित तरुके तर तुम्हरे बिरह निज जनम बिगोवति |
मनहु दुष्ट इंद्रिय सङ्कट महँ बुद्धि बिबेक उदय मगु जोवति ||

सुनि कपि बचन बिचारि हृदय हरि अनपायनी सदा सो एक मन |
तुलसिदास दुख-सुखातीत हरि सोच करत मानहु प्राकृत जन ||