(8)
मातु !काहेको कहति अति बचन दीन ?
तबकी तुही जानति, अबकी हौं ही कहत,
सबके जियकी जानत प्रभु प्रबीन ||
ऐसे तो सोचहि न्याय निठुर-नायक-रत
सलभ, खग, कुरङ्ग, कमल, मीन |
करुनानिधानको तो ज्यों ज्यों तनु छीन भयो,
त्यों त्यों मनु भयो तेरे प्रेम पीन ||
सियको सनेह, रघुबरकी दसा सुमिरि
पवनपूत देखि भयो प्रीति-लीन |
तुलसी जनको जननी प्रबोध कियो,
"समुझि तात! जग बिधि-अधीन ||