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गीतिका बनती गयी / प्रेमलता त्रिपाठी
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गुनगुनाती मैं रही बस गीतिका बनती गयी।
हों बहारें या विरह मन दीप बन जलती गयी।
झूमकर आयीं बहारें तब खिली यह यौवना,
कंटकों में यह सुमन मकरंदसी बहती गयी।
घूमता तूफान पागल है निवाला ढूंढता,
शांत शीतल डालियाँ जो राह में झुकती गयी।
तन खिलौना मानते जाना इसे है एक दिन,
आज कल की आस में बस कामना छलती गयी।
बूंद सागर हम सही मिलकर सदा मिटते रहे,
नेह आंसू के बहाकर खार बन घुलती गयी।
है कठिन यह दौर नाविक थाम लो पतवार तुम,
चाह जीवन संगिनी बन चेतना जगती गयी।
ईश मेरे देश की गरिमा बढ़े सत ज्ञान से,
प्रेम गाये मीत मन यह अर्चना फलती गयी।