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गीतों को सुनते-सुनते बदमस्त हो गया / उर्मिल सत्यभूषण
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गीतों को सुनते-सुनते बदमस्त हो गया
मैं गुनगुनाती ही रही लेकिन वो सो गया
ग़ज़लों की जान था, मेरे गीतों का प्राण था
आशिक़ नहीं रहा तो मेरा गीत खो गया
इक किरकिरी सी चुभ गई नग़में की आँख में
रातों रूला गया, मेरे नश्तर चुभो गया
जो दर्द था जमा हुआ सैलाब बन चला
हर अश्क मेरी आँख का इक गीत हो गया
अब गीत की आगोश में उर्मिल है रो रही
बुलबुल यह मेरे प्राण का खुद गुल भी हो गया।