भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत–झूम भौंरे उठे / ओम नीरव
Kavita Kosh से
झूम भौंरे उठे फाग गाने लगे।
देख खिलती कली गुनगुनाने लगे।
व्योम से भूमि पर छन रहीं रश्मियाँ,
वीण के तार-सी तन रहीं रश्मियाँ।
कर समीरन बढ़ाया उषा ने सिहर,
स्वर मधुर प्रीति के झनझनाने लगे।
रागिनी प्रात की गूंजने-सी लगी,
वल्लरी मत्त हो झूमने-सी लगी।
संयमी तरु दिवाने सयाने बने,
ओस-कण मोतियों-से लुटाने लगे।
' है अभी प्रात ही, तू अभी से न पी,
दिन चढ़े तक सही, लाज रख तो झपी'-
कह रही भृंग से, लग रही अंग से,
पंखुड़ी के कदम डगमगाने लगे।
वृद्ध वट पर चढ़ी आज लाली भली,
रंग ढुरका गयी है उषा बावली,
रंग में तो नशा रंच भी था नहीं,
क्या हुआ वृद्ध वट लड़खड़ाने लगे।
झूम भौंरे उठे फाग गाने लगे।